Friday 21 August 2015

कविता :- नर हो न निराश करो मन को।

नर हो न निराश करो मन को,
कुछ काम करो - कुछ काम करो।
जग में रह कर कुछ  नाम करो।
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो,
समझो जिसमे यह व्यर्थ न हो।
कुछ तो उपयुक्त करो तन को,
नर हो न निराश करो मन को।
सँभलो की सुयोग न जाय चला,
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला।
समझो जग को न निरा सपना,
पथ आप प्रशस्त  करो अपना।
अखिलेश्वर है अवलम्बन को,
नर हो न निराश करो मन को।
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्व यहाँ,
फिर जा सकता वह सत्व कहाँ ?
तुम सत्व-सुधा रस पान करो,
देवरूप रहो भाव कानन को,
नर हो न निराश करो मन को।
निज गौरव का नित ज्ञान रहे,
हम भी हैं कुछ नित ध्यान रहे।
मरणोत्तर गुंजित गान  रहे,
सब जाय अभी पर मान रहे।
कुछ हो न तजो निज साधन को,
नर न निराश करो मन को।
प्रभु ने तुम्हेँ कर दान किये,
सब वांछित वस्तु निधान किये।
तुम प्राप्त करो उनको न अहो,
फिर है किसका यह दोष कहो।
समझो न अलभ्य किसी धन को,
नर हो न निराश करो मन को।
किस गौरव के तुम योग्य नहीँ,
कब कौन तुम्हेँ सुख भोग्य नहीँ।
जन हो तुम भी जगदीश्वर के,
सब हैं जिसके अपने घर के।
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को,
नर हो न निराश करो मन को।
करके विधिवाद न खेद करो,
जिज लक्ष्य निरंतर भेद करो।
बनता बस उद्यम ही विधि है,
मिलती जिससे सुख की निधि है।
धिक्कार है निष्क्रिय जीवन को,
नर हो न निराश कारो मन को,
कुछ काम करो - कुछ काम करो,
जग में रहकर कुछ नाम करो।

द्वारा ;- राष्ट्रकवि श्री मैथिली शरण गुप्त 

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